pad women of uttar pradesh: डॉक्युमेंट्री ऑस्कर के लिए नॉमिनेट

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pad women of uttar pradesh:डॉक्युमेंट्री- पीरियड, एंड द सेंटेंस, हाल ही में ऑस्कर की शॉर्ट सब्जेक्ट कैटिगरी में हुई नामांकित

लखनऊ/हापुड़:LNN:यूपी के एक गांव की महिलाओं पर बनी डॉक्युमेंट्री ऑस्कर में नामांकित,

हापुड़ के काथीखेड़ा गांव में सैनिटरी नैपकिन बनाती हैं महिलाएं 7 महिलाओं की टीम रोज कम कीमत के 600 पैड बनाती है.

दो लड़कियों से पीरियड्स के बारे में पूछा गया तो वे फुसफुसाते हुए हंसती हैं और अपना चेहरा छिपा लेती हैं.

एक दूसरी महिला ने कहा, ‘मैं जानती तो हूं लेकिन मुझे शर्म आती है.’

जब कुछ स्कूल जाने वाले लड़कों से पूछा गया कि पीरियड्स क्या हैं तो उनमें से एक ने बताया, ‘जैसे क्लास पीरियड होता है? जब घंटी बजती है.

यह डॉक्युमेंट्री ‘पीरियड. एंड द सेंटेंस’ के शुरुआती सीन हैं.

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यह डॉक्युमेंटी हाल ही में ऑस्कर की शॉर्ट सब्जेक्ट कैटिगरी में नामांकित हुई है.

pad women of uttar pradesh: माहवारी महिलाओं से जुड़ा एक ऐसा मुद्दा है जिसपर अब चर्चा होने लगी है

कई बार ये राष्ट्रीय चर्चा में भी बदली है.

यही कारण है कि इसे लेकर कुछ हद तक भ्रांतियां कम हुई हैं.

माहवारी पर बनने वाली फिल्मों और कैम्पेन के जरिए महिलाओं के आत्मविश्वास को जगाने की कोशिश की जाती रही है.

ऑस्कर के लिए चुनी गई फिल्म 2017 में काथीखेड़ा गांव में शूट हुई थी

ऐक्शन इंडिया एनजीओ के साथ काम करने वाली सुमन ने बताया,

‘शुरुआत में कई लड़कियां शर्म की वजह से अपने परिवार को यह नहीं बताती थीं कि वे पैड बनाने का काम करती हैं.’

सुमन के घर पर ही पैड बनाने की यूनिट है.

महिलाओं को 2,000 रुपये प्रति महीने के हिसाब से मेहनताना मिलता है.

कॉलेज में लेक्चरर बनने की चाह रखने वाली राखी अपनी कमाई से एमए की पढ़ाई की फीस भरती हैं.

आर्शी एक बीएससी स्टूडेंट हैं और डॉक्टर बनना चाहती हैं.

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pad women of uttar pradesh : इसी यूनिट में डॉक्युमेंट्री की स्टार स्नेहा भी काम करती हैं.

23 साल की स्नेहा पुलिस में भर्ती होना चाहती हैं. दरअसल वह शादी के सामाजिक दबाव से बचने के लिए इसे रास्ता मानती हैं.

वह बताती हैं, ‘जब मैंने यहां काम करना शुरू किया, तो मैंने पिता को बताया कि यह एक डाइपर फैक्ट्री है.

मुझे शर्म महसूस होती थी कि लोग सोचेंगे कि लड़की माहवारी जैसे विषय पर बात क्यों कर रही है?

लेकिन फिर मुझे एहसास हुआ कि अगर मुझे झिझक महसूस होगी तो मैं अपना काम कैसे करूंगी.’

इसके बाद साहस जुटाते हुए स्नेहा ने अपनी महिला रिश्तेदारों और दोस्तों को इस बारे में बताना शुरू किया.

उन्हें सैनिटरी पैड का इस्तेमाल करने के लिए जागरूक किया. स्नेहा अपनी कमाई से प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कोचिंग की फीस भरती हैं.

वह कहती हैं, ‘हालांकि मेरे पिता काफी सहयोग करते हैं लेकिन यह देखकर अच्छा लगता है कि मैं खुद से कुछ कर पा रही हूं.’

अगर ये लड़कियां आज सपना देख रही हैं.

इसका क्रेडिट अमेरिका के लॉस एंजिलिस शहर के एक स्कूल की 10 बच्चियों और उनकी इंग्लिश टीचर को जाता है.

इन लोगों को जब पता चला कि हापुड़ में कई लड़कियां पीरियड्स की वजह से स्कूल छोड़ देती हैं,

तो उन्होंने पैड मेकिंग मशीन के लिए फंड डोनेट किया.

अपनी टीचर मेलिसा बर्टन की मदद से उन्होंने एनजीओ गर्ल्स लर्न इंटरनैशनल ऐंड ऐक्शन इंडिया के साथ पार्टनरशिप की.

pad women of uttar pradesh:डॉक्युमेंट्री बनाने में शामिल रहीं स्नेहा बताती हैं, मैं खुद पुलिस में भर्ती होना चाहती थी लेकिन जब यहां काम करना शुरू किया.

pad women of uttar pradesh ने पिता को बताया कि मैं एक डाइपर फैक्ट्री में काम करती हूं क्योंकि मुझे खुद शर्म महसूस होती थी

काम करते करते मुझे लगा कि जब हर मुद्दे पर बात होती है तो इस पर इतनी चुप्पी क्यों.

मैंने फिर अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से इस बारे में बात करनी शुरू की.

मैंने सोचा जरूर ये pad women of uttar pradesh फिल्म लोगों को जागरुक करने में मेरी मदद करेगी और ऐसा ही हुआ.

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वह कहती हैं, ‘मैं बहुत एक्साइटेड हूं और डर भी लग रहा है. मैं कभी दिल्ली तक नहीं गई.’

जब वह स्क्रीन पर खुद को देखती हैं तो उन्हें गर्व महसूस होता है कि उन्होंने कुछ हटके किया है.

वह कहती हैं, ‘यह सिर्फ पैसे कमाई की बात नहीं है बल्कि मैं जागरूकता फैलाना चाहती हूं.

बताना चाहती हूं कि लड़कियां किसी पर निर्भर नहीं है खासकर पतियों पर

वह कहती हैं, ‘मैं बहुत एक्साइटेड हूं और डर भी लग रहा है. मैं कभी दिल्ली तक नहीं गई.’

जब वह स्क्रीन पर खुद को देखती हैं तो उन्हें गर्व महसूस होता है कि उन्होंने कुछ हटके किया है.
वह कहती हैं, ‘यह सिर्फ पैसे कमाई की बात नहीं है बल्कि मैं जागरूकता फैलाना चाहती हूं.

बताना चाहती हूं कि लड़कियां किसी पर निर्भर नहीं है खासकर पतियों पर.’

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