The Epidemic महामारी में हदें पार हो गयीं…यह बेबसी और लाचारी !

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The Epidemic में कोई कितना गिर सकता है! गिरने की भी एक हद होती है और नीचता की एक सीमा

महेंद्र प्रताप सिंह

उफ्फ! की सीमा तक इंसानियत मर जाए तब आखिर समाज का क्या होगा! महामारी में सब हदें पार हो गयीं हैं. हर तरफ सिर्फ और सिर्फ बुरी खबरें ही हैं.

The Epidemic ..अच्छी खबरें तो हैं लेकिन, इस दौर में उन पर आसानी से यकीन नहीं हो रहा.हर तरफ हाहाकार है.दु:ख है, शोक-संताप है. अपनों को खोने की पीड़ा है. डर है, पछतावा है.

किसी के लिए कुछ न कर पाने की छटपटाहट है. बेबसी है, लाचारी है. कोविड से रोज हारते लोगों की सूचना है.

दिल-दिमाग को दुरुस्त रखने के लिए हर सुबह झूठी मुस्कुराहट लाने की कोशिश है. जो शाम होते-होते बेचैनी में बदल जाती है.

मन को शांत करने की कोशिश करता हूं तो एंबुलेंस की चीख दिल की धड़कन को बढ़ा देती है.

दिल में एक हूक सी उठती है, आशंकाएं घेर लेती हैं! पता नहीं अभागे को अस्पताल में जगह मिलेगी, प्राणवायु नसीब होगी!

अस्पताल में कौन और कैसे करेगा देखभाल. मन बहलाने की कोशिश करता हूं. लेकिन, मन में नया सवाल घुमडऩे लगता है.



ख़ुद से पूछता हूं… आखिर जनता में अपने हुक्मरानों से सवाल पूछने की अक्ल कब आएगी कि उनकी जरूरतें क्या हैं!

The Epidemic..उन्हें मंदिर, मस्जिद, हिंदू-मुसलमान, झूठा राष्ट्रवाद और छद्म देशप्रेम चाहिए. या फिर अच्छे अस्पताल, डॉक्टर और उम्दा चिकित्सा सुविधाएं चाहिए.

जिनके अभाव में लोग तड़प-तड़पकर मर रहे हैं. मैं जो सोच रहा हूं पता नहीं और भी लोग इस संकट के दौर में यह सोच पा रहे हैं या नहीं! नहीं जानता.

इसी उधेड़बुन में छत पर चला जाता हूं. देखता हूं, महसूस करता हूं पड़ोसियों का भी व्यवहार कुछ बदला-बदला सा है. सभी चुप हैं, ख़ामोश हैं। दूरी बनाने की कोशिश है.

शक की निगाहें दूर से घूर रहीं. मानों हम सभी संक्रमण की गिरफ्त में हैं.

ठीक है दो गज की दूरी बहुत ज़रूरी, इन नियम का पालन होना चाहिए.

लेकिन, यह क्या! यहां तो मन की दूरियां बढ़ रहीं हैं! क्या अवसाद इतना गहरा हो चला है.

गर्मी के मौसम में भी छत पर ख़ूब हरियाली है. धर्मपत्नी की मेहनत दिख रही है. किसिम-किसिम के फूल गमलों में खिले हैं.लेकिन, फूलों की सुगंध-सुवास मन को नहीं भा रही.

सूरज ढल चुका है. लेकिन, अब भी कोयल कूक रही है. बचपन से ही कोयल का कूकना पसंद है.

आम के बागों में ख़ूब नकल उतारी है. आज फिर खिलंदड़ बचपन की यादें ताजा करना चाहता हूं. गांव की खुशबू महसूस करना चाहता हूं. लेकिन, उदास मन को कोयल की कूक सुकून नहीं दे पा रही.

खुले वातावरण में भी घुटन सी महसूस हो रही है. लाख कोशिश के बाद मन फिर से महामारी और उससे उपजे विनाश की ओर चला जाता है.

सड़क उस पर पांडे जी का रेडियो समाचार सुना रहा है-झांसी के महारानी लक्ष्मीबाई मेडिकल कॉलेज के कोविड अस्पताल में मरीजों के रेमेडेसिविर इंजेक्शन यहां के कर्मचारी वेंटिलेटर पर पड़े मरीज को न लगाकर उसे चोरी कर लेते थे.

इसे बाजार में 40 हजार रुपये में बेच देते थे.

कुछ निजी अस्पताल से जुड़े कर्मचारी खाली शीशी में लिक्विड भरकर रेमडेसिविर बताकर इसे बेचा करते थे.

झांसी के एसएसपी रोहन पी कनय की ज़ुबानी सुनकर भी हैरत नहीं होती. आदत हो चली है. इस तरह की खबरें सुनने की……….इंसानियत के इस कदर मर जाने पर दिमाग शून्य हो चला है.

अपलक आसमान को निहारता हूं. आंखों से आंसू गालों पर लुढ़क पड़ते हैं.


सवाल करता हूं, हे परमात्मा! आपकी बनायी रचना आखिर कैसे इतनी निष्ठुर,निर्दयी और लालची हो सकती है! महासंकट में भी इंसान की फितरत इतनी घिनौनी कैसे हो सकती है!

कोई ऑक्सीजन सिलेंडर बेच रहा तो कोई अस्पताल की बेड. श्मशान घाट में भी जल्दी फूंकने की कीमत लग रही. यह सब तब, जब हर किसी का जीवन हर पल दांव पर है.

एक बार फिर एंबुलेंस के चीखने की आवाज आती है. दबे पांव सीढिय़ां उतरता हूं.

फिर सवाल कौंध रहा है-कुछ तो ग़लतियां हमने की हैं… ईश्वर की आराधना में, प्रकृति के अनियोजित दोहन में और अपने हुक्मरानों को चुनने में….शायद यह दिन तभी देखने को मिल रहे हैं….

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं

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